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बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है | शाही शायरी
badan simTa hua aur dasht-e-jaan phaila hua hai

ग़ज़ल

बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है

सालिम सलीम

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बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है
सो ता-हद्द-ए-नज़र वहम ओ गुमाँ फैला हुआ है

हमारे पाँव से कोई ज़मीं लिपटी हुई है
हमारे सर पे कोई आसमाँ फैला हुआ है

ये कैसी ख़ामुशी मेरे लहू में सरसराई
ये कैसा शोर दिल के दरमियाँ फैला हुआ है

तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब
अभी तक मेरे कमरे में धुआँ फैला हुआ है

हिसार-ए-ज़ात से कोई मुझे भी तो छुड़ाए
मकाँ में क़ैद हूँ और ला-मकाँ फैला हुआ है