EN اردو
बदन के दीवार-ओ-दर में इक शय सी मर गई है | शाही शायरी
badan ke diwar-o-dar mein ek shai si mar gai hai

ग़ज़ल

बदन के दीवार-ओ-दर में इक शय सी मर गई है

मुसव्विर सब्ज़वारी

;

बदन के दीवार-ओ-दर में इक शय सी मर गई है
अजीब ख़ुशबू उदासियों की बिखर गई है

जगाओ मत रिसते ख़्वाबों की रत-जगी थकन को
कि धूप दालान से कभी की उतर गई है

फ़सील-ए-सर को बचाए रखता है वो अभी तक
ज़मीं की पस्ती तो रेशे रेशे में भर गई है

न टूट कर इतना हम को चाहो कि रो पड़ें हम
दबी दबाई सी चोट इक इक उभर गई है

वो रात जिस में ज़वाल-ए-जाँ का ख़तर नहीं था
वो रात गहरे समुंदरों में उतर गई है