बदन-दरीदा-ओ-बे-बर्ग-ओ-बार होना भी
मिरे ही वास्ते फिर शर्मसार होना भी
नज़र उठाऊँ मैं जब जब भी दश्त-ए-शब देखूँ
अजीब शय है सहर का शिकार होना भी
तरीक़ सारे गुमाँ के क़दम से लिपटे हैं
कि मेरे सर है हक़ीक़त-निसार होना भी
मिरे ही नाम पे मंज़िल-रसी ये ठहरी है
मिरे लिए ही मगर पा-फ़िगार होना भी
मैं उस ज़मीन का वारिस हूँ 'शाह' ये भी है
मिरे नसीब में हिजरत-शिआ'र होना भी
ग़ज़ल
बदन-दरीदा-ओ-बे-बर्ग-ओ-बार होना भी
शाह हुसैन नहरी