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बदल सका न जुदाई के ग़म उठा कर भी | शाही शायरी
badal saka na judai ke gham uTha kar bhi

ग़ज़ल

बदल सका न जुदाई के ग़म उठा कर भी

रियाज़ मजीद

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बदल सका न जुदाई के ग़म उठा कर भी
कि मैं तो मैं ही रहा तुझ से दूर जा कर भी

मैं सख़्त-जान था इस कर्ब से भी बच निकला
मैं जी रहा हूँ तुझे हाथ से गँवा कर भी

ख़ुदा करे तुझे दूरी ही रास आ जाए
तू क्या करेगा भला अब यहाँ पर आ कर भी

अभी तो मेरे बिखरने का खेल बाक़ी है
मैं ख़ुश नहीं हूँ अभी अपना घर लुटा कर भी

मैं उस को सत्ह से महसूस कर के भी ख़ुश हूँ
वो मुतमइन ही नहीं मेरी तह को पा कर भी

अभी तक उस ने कोई भी तो फ़ैसला न किया
वो चुप है मुझ को हर इक तरह आज़मा कर भी

उसी हुजूम में लड़-भिड़ के ज़िंदगी कर लो
रहा न जाएगा दुनिया से दूर जा कर भी

वो लोग और ही थे जिन का इज्ज़ फल लाया
हमें तो कुछ न मिला अपने को मिटा कर भी

खुला ये भेद कि तन्हाइयाँ ही क़िस्मत हैं
इक उम्र देख लिया महफ़िलें सजा कर भी

ग़ज़ल कहे पे भी सोचों का बोझ कम न हुआ
सकूँ न मिल सका अहवाल-ए-दिल सुना कर भी

रुका न ज़ुल्म मिरे राख बनने पर भी 'रियाज़'
हुआ की ख़ू तो वही है मुझे जला कर भी