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बात से बात निकलने के वसीले न रहे | शाही शायरी
baat se baat nikalne ke wasile na rahe

ग़ज़ल

बात से बात निकलने के वसीले न रहे

ख़ालिद अहमद

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बात से बात निकलने के वसीले न रहे
लब रसीले न रहे नैन नशीले न रहे

अश्क बरसे तो दरूं-ख़ाना-ए-जाँ सैल गया
दर्द चमका तो दर-ओ-बाम भी गीले न रहे

फूल से बास जुदा फ़िक्र से एहसास जुदा
फ़र्द से टूट गए फ़र्द क़बीले न रहे

टीस उठती है मगर चीख़ नहीं हो पाती
तेरे फेंके हुए पत्थर भी नुकीले न रहे

मौत ने छीन लिया रंग भी नम भी 'ख़ालिद'
आँख भी सूख गई होंट भी नीले न रहे