बारिश की रुत थी रात थी पहलू-ए-यार था
ये भी तिलिस्म-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार था
कहते हैं लोग औज पे था मौसम-ए-बहार
दिल कह रहा है अरबदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार था
अब तो विसाल-ए-यार से बेहतर है याद-ए-यार
मैं भी कभी फ़रेब-ए-नज़र का शिकार था
तू मेरी ज़िंदगी से भी कतरा के चल दिया
तुझ को तो मेरी मौत पे भी इख़्तियार था
ओ गाने वाले टूटते तारों के साज़ पर
मैं भी शहीद-ए-तूल-ए-शब-ए-इंतिज़ार था
पलकें उठीं झपक के गिरीं फिर न उठ सकीं
ये ए'तिबार है तो कहाँ ए'तिबार था
यज़्दाँ से भी उलझ ही पड़ा था तिरा 'नदीम'
या'नी अज़ल से दिल में यही ख़लफ़शार था
ग़ज़ल
बारिश की रुत थी रात थी पहलू-ए-यार था
अहमद नदीम क़ासमी