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बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो | शाही शायरी
barish ke qatre ke dukh se na-waqif ho

ग़ज़ल

बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

हुमैरा राहत

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बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
तुम हँसते चेहरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

तुम ने सिर्फ़ बिछड़ जाने का कर्ब सहा है
पा कर खो देने के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

एक ही छत के नीचे रहते हैं हम लेकिन
तुम मेरे लहजे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

साथ किसी के रह कर जो तन्हा कटता है
तुम ऐसे लम्हे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

हाथों की चूड़ी की ज़बान समझ लेते हो
फैले हुए गजरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

जो मंज़िल तक जा के और कहीं मुड़ जाए
तुम ऐसे रस्ते के दुख से ना-वाक़िफ़ हो