बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
तुम हँसते चेहरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
तुम ने सिर्फ़ बिछड़ जाने का कर्ब सहा है
पा कर खो देने के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
एक ही छत के नीचे रहते हैं हम लेकिन
तुम मेरे लहजे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
साथ किसी के रह कर जो तन्हा कटता है
तुम ऐसे लम्हे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
हाथों की चूड़ी की ज़बान समझ लेते हो
फैले हुए गजरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
जो मंज़िल तक जा के और कहीं मुड़ जाए
तुम ऐसे रस्ते के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
ग़ज़ल
बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
हुमैरा राहत