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बार-ए-ख़ातिर हुई ये उम्र-ए-गुरेज़ाँ जानाँ | शाही शायरी
bar-e-KHatir hui ye umr-e-gurezan jaanan

ग़ज़ल

बार-ए-ख़ातिर हुई ये उम्र-ए-गुरेज़ाँ जानाँ

मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र

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बार-ए-ख़ातिर हुई ये उम्र-ए-गुरेज़ाँ जानाँ
तुझ को समझा था ग़म-ए-हिज्र का दरमाँ जानाँ

आ बताऊँ तुझे आशोब-ए-तमन्ना क्या है
कैसे कटती है ये तार-ए-शब-ए-हिज्राँ जानाँ

मैं ने हर ग़म को ग़म-ए-इश्क़ से ता'बीर किया
ग़म-ए-जाँ हो या बला से ग़म-ए-दौराँ जानाँ

कोई देखे मिरी आँखों से असीरी का फ़ुसूँ
घर हुआ जाता है इक हल्क़ा-ए-ज़िन्दाँ जानाँ

एक भी तीर-ए-नज़र तेरा ख़ता जाता नहीं
सब हुए जाते हैं पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ जानाँ

ख़ुद-कुशी है या ये इज़हार-ए-ग़म-ए-फुर्क़त है
ख़ुद से होने लगा हूँ दस्त-ओ-गरेबाँ जानाँ

उम्र-भर गुंचा-ए-हस्ती न शगुफ़्ता देखा
हम ने जैसे भी बसर की तिरा एहसाँ जानाँ

कुंज-ए-ग़ुर्बत में 'मुज़फ़्फ़र' ने ग़नीमत समझा
जिस क़दर भी वो हुआ बे-सर-ओ-सामाँ जानाँ