बार बार एक ही नज़्ज़ारा न दिखलाया कर
बात दिलकश भी अगर हो तो न दोहराया कर
लोग गिर जाते हैं मिट्टी के घरोंदों की तरह
इस तरह बारिश-ए-दीदार न बरसाया कर
पेड़ का साया नहीं टूटा हुआ पत्ता हूँ
मुझ को जज़्बात के दरिया में न ठहराया कर
टूट जाए न किसी रोज़ तिरा शीश-महल
यूँ सर-ए-राह न दीवानों को समझाया कर
मेरे एहसास को इक फूल बहुत है 'ख़ावर'
मेरे एहसास पे यूँ संग न बरसाया कर
ग़ज़ल
बार बार एक ही नज़्ज़ारा न दिखलाया कर
ख़ाक़ान ख़ावर