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बार बार एक ही नज़्ज़ारा न दिखलाया कर | शाही शायरी
bar bar ek hi nazzara na dikhlaya kar

ग़ज़ल

बार बार एक ही नज़्ज़ारा न दिखलाया कर

ख़ाक़ान ख़ावर

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बार बार एक ही नज़्ज़ारा न दिखलाया कर
बात दिलकश भी अगर हो तो न दोहराया कर

लोग गिर जाते हैं मिट्टी के घरोंदों की तरह
इस तरह बारिश-ए-दीदार न बरसाया कर

पेड़ का साया नहीं टूटा हुआ पत्ता हूँ
मुझ को जज़्बात के दरिया में न ठहराया कर

टूट जाए न किसी रोज़ तिरा शीश-महल
यूँ सर-ए-राह न दीवानों को समझाया कर

मेरे एहसास को इक फूल बहुत है 'ख़ावर'
मेरे एहसास पे यूँ संग न बरसाया कर