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बाक़ी है ताब-ए-ज़ब्त न ताक़त फ़ुग़ाँ की है | शाही शायरी
baqi hai tab-e-zabt na taqat fughan ki hai

ग़ज़ल

बाक़ी है ताब-ए-ज़ब्त न ताक़त फ़ुग़ाँ की है

मोहम्मद विलायतुल्लाह

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बाक़ी है ताब-ए-ज़ब्त न ताक़त फ़ुग़ाँ की है
हालत बहुत सक़ीम दिल-ए-ना-तवाँ की है

आँखों में जोश है कभी तूफ़ान नूह का
दिल में मिरे तड़प कभी बर्क़-ए-तपाँ की है

ऐ आह-ए-ना-रसा तिरे नाले हैं बे-असर
बेहतर यही है बात रहे जो जहाँ की है

होता है जोश गर ये जो अब बात बात पर
दिल में मिरे ये चोट इलाही कहाँ की है

ऐ दिल तुझे नतीजा-ए-उल्फ़त है ख़ूब याद
और फिर भी आरज़ू तुझे कू-ए-बुताँ की है

जिस को समझ रहे हैं वो बादल की इक गरज
फ़रियाद दर्दनाक किसी ख़स्ता-जाँ की है

बुलबुल है ख़ुश कि बाग़ में है ख़ाक आशियाँ
ये कौन जानता है कि मिट्टी कहाँ की है

सोने दिया न शोर-ए-क़यामत ने क़ब्र में
समझा था मैं कि जाए ये अम्न-ओ-अमाँ की है

रंग-ए-शफ़क़ से शाम को मिलता है ये पता
अब आसमाँ पे गर्द मिरे कारवाँ की है

मंसूर की फ़ना है बक़ा-ए-सदा-ए-हक़
आवाज़ वादियों में अभी तक अज़ाँ की है

समझा रहा हूँ दिल को नहीं फिर भी ए'तिमाद
वो बात कह रहा हूँ जो उन की ज़बाँ की है

है दिल-गुदाज़ यूँ भी मिरी दास्तान-ए-ग़म
तासीर उस पे कुछ मिरे तर्ज़-ए-बयाँ की है

'हाफ़िज़' ये काएनात न हो जाए जल के ख़ाक
बढ़ती हुई तपिश मिरे सोज़-ए-निहाँ की है