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बाल-ओ-पर रखते नहीं अज़्म-ए-सफ़र रखते हैं | शाही शायरी
baal-o-par rakhte nahin azm-e-safar rakhte hain

ग़ज़ल

बाल-ओ-पर रखते नहीं अज़्म-ए-सफ़र रखते हैं

मुश्ताक़ अंजुम

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बाल-ओ-पर रखते नहीं अज़्म-ए-सफ़र रखते हैं
शौक़-ए-परवाज़ ब-अंदाज़-ए-दिगर रखते हैं

हाथ उठाने की कोई शर्त दुआ में कब है
तेरे उश्शाक़ निगाहों में असर रखते हैं

बिल-इरादा न सही यूँ ही कभी आ जाओ
प्यार के रस्ते में हम छोटा सा घर रखते हैं

ये अलग बात कि आते हैं नज़र ज़र्रा-सिफ़त
वर्ना क़दमों में तो हम शम्स-ओ-क़मर रखते हैं

धूप है रेत है और अपना सफ़र है जारी
साया रखते हैं न हम लोग शजर रखते हैं

उस तरफ़ वाले नज़र आते हैं लर्ज़ीदा मगर
इस तरफ़ वाले कफ़-ए-दस्त पे सर रखते हैं

पुर-सुकूँ है जो फ़ज़ा उस पे न जाना 'अंजुम'
आशियाँ कितने अभी बर्क़-ओ-शरर रखते हैं