बाग़-ए-आलम में रहे शादी-ओ-मातम की तरह
फूल की तरह हँसे रो दिए शबनम की तरह
शिकवा करते हो ख़ुशी तुम से मनाई न गई
हम से ग़म भी तो मनाया न गया ग़म की तरह
रोज़ महफ़िल से उठाते हो तो दिल दुखता है
अब निकलवाओ तो फिर हज़रत-ए-आदम की तरह
लाख हम रिंद सही हज़रत-ए-वाइ'ज़ लेकिन
आज तक हम ने न पी क़िब्ला-ए-आलम की तरह
तेरे अंदाज़-ए-जराहत के निसार ऐ क़ातिल
ख़ून ज़ख़्मों पे नज़र आता है मरहम की तरह
ख़ौफ़ दिल से न गया सुब्ह के होने का 'क़मर'
वस्ल की रात गुज़ारी है शब-ए-ग़म की तरह
ग़ज़ल
बाग़-ए-आलम में रहे शादी-ओ-मातम की तरह
क़मर जलालवी