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बादल बरस के खुल गया रुत मेहरबाँ हुई | शाही शायरी
baadal baras ke khul gaya rut mehrban hui

ग़ज़ल

बादल बरस के खुल गया रुत मेहरबाँ हुई

वज़ीर आग़ा

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बादल बरस के खुल गया रुत मेहरबाँ हुई
बूढ़ी ज़मीं ने तन के कहा मैं जवाँ हुई

मकड़ी ने पहले जाल बुना मेरे गिर्द फिर
मोनिस बनी रफ़ीक़ बनी पासबाँ हुई

शब की रिकाब थाम के ख़ुश्बू हुई जुदा
दिन चढ़ते चढ़ते बिसरी हुई दास्ताँ हुई

करते हो अब तलाश सितारों को ख़ाक पर
जैसे ज़मीं ज़मीं न हुई आसमाँ हुई

इस बार ऐसा क़हत पड़ा छाँव का कि धूप
हर सूखते शजर के लिए साएबाँ हुई

गीली हवा के लम्स में कुछ था वगरना कब
कलियों की बास गलियों के अंदर रवाँ हुई

आना है गर तो आओ कि चलने लगी हवा
कश्ती समुंदरों में खुला बादबाँ हुई