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बाद-ए-शिमाल चलने लगी अंग अंग में | शाही शायरी
baad-e-shimal chalne lagi ang ang mein

ग़ज़ल

बाद-ए-शिमाल चलने लगी अंग अंग में

मुसव्विर सब्ज़वारी

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बाद-ए-शिमाल चलने लगी अंग अंग में
लिपटा है कौन मुझ से ये पतझड़ के रंग में

ख़्वाहिश के कारोबार से बचना मुहाल है
उतरेगा तू भी साथ मिरे इस सुरंग में

मैं आँधियों में हाथ भी पकड़ूँ तिरा तो क्या
इक शाख़-ए-बे-सिपर हूँ हवाओं की जंग में

'राँझा' मैं अहद-ए-नौ का क़बीलों में बट गया
तो 'हीर' बन के पी न सकी ज़हर झंग में

गरमा सकीं न चाहतें तेरा कठोर जिस्म
हर इक जल के बुझ गई तस्वीर संग में

आगे 'मुसव्विर' आग अक़ब में है ये सदा
पीछे न मुड़ के देखना इस दश्त-ए-संग में