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बाब-ए-क़फ़स खुलने को खुला है | शाही शायरी
bab-e-qafas khulne ko khula hai

ग़ज़ल

बाब-ए-क़फ़स खुलने को खुला है

आसी रामनगरी

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बाब-ए-क़फ़स खुलने को खुला है
बाहर भी तो दाम बिछा है

उस के सिवा सब भूल गया हूँ
जब से वो मिरे दिल में बसा है

बढ़ने लगी है दिल की धड़कन
शायद उस ने याद किया है

क़ाफ़िले वालो ख़ैर मनाओ
रहज़न ही जब राह-नुमा है

साहिल साहिल भी क्या चलना
मौजों पे सफ़ीना डाल दिया है

अपनी मर्ज़ी अपनी रज़ा क्या
सब से बढ़ कर उस की रज़ा है

आज के इंसाँ की मत पूछो
जैसे ख़ुदा से भी ये बड़ा है