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ब-ज़ोम-ए-ख़ुद कहीं ख़ुद से वरा न हो जाऊँ | शाही शायरी
ba-zom-e-KHud kahin KHud se wara na ho jaun

ग़ज़ल

ब-ज़ोम-ए-ख़ुद कहीं ख़ुद से वरा न हो जाऊँ

परवेज़ साहिर

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ब-ज़ोम-ए-ख़ुद कहीं ख़ुद से वरा न हो जाऊँ
ख़ुदा-न-ख़्वास्ता मैं भी ख़ुदा न हो जाऊँ

बस एक ध्यान की मैं उँगली थाम रखी है
कि भीड़ में कहीं ख़ुद से जुदा न हो जाऊँ

ये सोचता हूँ किसी दिल में घर करूँ मैं भी
और उस से पहले यहाँ बे-ठिकाना हो जाऊँ

ये जी में आता है मेरे कि रफ़्तगाँ की तरह
मैं आज मुल्क-ए-अदम को रवाना हो जाऊँ

सब अहल-ए-दहर मुझे ढूँडते न रह जाएँ
मैं अपनी ज़ात ही में लापता न हो जाऊँ

कोई तो हो जो मुझे ज़िंदगी ही में पाए
किसी के हाथ में आया ख़ज़ाना हो जाऊँ

जो हो सके तो मिरे जीते-जी ही क़द्र करो
मबादा मैं कोई गुज़रा ज़माना हो जाऊँ

बस एक तजरबा मेरे लिए बहुत है दिला
इक और इश्क़ में फिर मुब्तला न हो जाऊँ

मैं इक चराग़-ए-सर-ए-रहगुज़ार हूँ 'साहिर'
हवा के साथ बिल-आख़िर हवा न हो जाऊँ