EN اردو
ब-रंग-ए-शे'र गिरे और बार बार गिरे | शाही शायरी
ba-rang-e-sher gire aur bar bar gire

ग़ज़ल

ब-रंग-ए-शे'र गिरे और बार बार गिरे

सहबा अख़्तर

;

ब-रंग-ए-शे'र गिरे और बार बार गिरे
हमारे ज़ेहन पे किरनों के आबशार गिरे

ग़मों की राह में साबित-क़दम हैं दीवाने
बिसात-ए-ऐश पे कितने नशात-ए-कार गिरे

चमन खुला तो नई निकहतों के आँचल पर
शगुफ़्त-ए-गुल से तिरे अक्स बे-शुमार गिरे

ज़मीन चाँद का टुकड़ा है जिस की ज़ुल्मत पर
कई उजाले हर इक शब सितारा-वार गिरे

हमें भी फ़ुर्सत-ए-यक-ख़्वाब उस फ़ज़ा में जहाँ
किरन किरन लब-ओ-रुख़्सार की फुवार गिरे

उभर रहा है जो मशरिक़ के हर ख़राबे से
किसे ख़बर कि कहाँ जा के ये ग़ुबार गिरे