EN اردو
ब-क़द्र-ए-हौसला कोई कहीं कोई कहीं तक है | शाही शायरी
ba-qadr-e-hausla koi kahin koi kahin tak hai

ग़ज़ल

ब-क़द्र-ए-हौसला कोई कहीं कोई कहीं तक है

सज्जाद बाक़र रिज़वी

;

ब-क़द्र-ए-हौसला कोई कहीं कोई कहीं तक है
सफ़र में राह-ओ-मंज़िल का तअ'य्युन भी यहीं तक है

न हो इंकार तो इसबात का पहलू भी क्यूँ निकले
मिरे इसरार में ताक़त फ़क़त तेरी नहीं तक है

उधर वो बात ख़ुश्बू की तरह उड़ती थी गलियों में
इधर मैं ये समझता था कि मेरे हम-नशीं तक है

नहीं कोताह-दस्ती का गिला इतना ग़नीमत है
पहुँच हाथों की अपने अपने जेब-ओ-आस्तीं तक है

सियाही दिल की फूटेगी तो फिर नस नस से फूटेगी
ग़ुलामो ये न समझो दाग़-ए-रुस्वाई जबीं तक है

फिर आगे मरहले तय हो रहेंगे हिम्मत-ए-दिल से
जहाँ तक रौशनी है ख़ौफ़-ए-तारीकी वहीं तक है

इलाही बारिश-ए-अब्र-ए-करम हो फ़स्ल दूनी हो
कि 'बाक़र' की तो आमद बस इसी दिल की ज़मीं तक है