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ब-हर-उनवाँ मोहब्बत को बहार-ए-ज़िंदगी कहिए | शाही शायरी
ba-har-unwan mohabbat ko bahaar-e-zindagi kahiye

ग़ज़ल

ब-हर-उनवाँ मोहब्बत को बहार-ए-ज़िंदगी कहिए

बशर नवाज़

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ब-हर-उनवाँ मोहब्बत को बहार-ए-ज़िंदगी कहिए
क़रीन-ए-मस्लहत है उस के हर ग़म को ख़ुशी कहिए

जहाँ-साज़ों को फ़रज़ाना हम अहल-ए-दिल को दीवाना
ज़माना तो बहुत कहता रहा अब आप भी कहिए

ब-उनवान-ए-दिगर फिर हम से क़ाएम कर लिया तुम ने
वो इक गहरा तअल्लुक़ जिस को तर्क-ए-दोस्ती कहिए

समझ कर संग-ए-राह-ए-शौक़ ठुकराता हूँ मंज़िल को
कमाल-ए-आगही कहिए इसे या गुमरही कहिए

शब-ए-महताब में अक्सर फ़ज़ाओं से बरसता है
तिलिस्म-ए-नग़्मगी ऐसा कि जिस को ख़ामुशी कहिए

मैं अक्सर सोचता हूँ तेरी बे-पायाँ नवाज़िश को
अदा-ए-ख़ास कहिए कोई या बस सादगी कहिए

भरी महफ़िल से भी तिश्ना ही लौट आई नज़र अपनी
ख़ुद-आगाही समझ लीजे इसे या ख़ुद-सरी कहिए