अव्वलीं चाँद ने क्या बात सुझाई मुझ को
याद आई तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई मुझ को
सर-ए-ऐवान-ए-तरब नग़्मा-सरा था कोई
रात भर उस ने तिरी याद दिलाई मुझ को
देखते देखते तारों का सफ़र ख़त्म हुआ
सो गया चाँद मगर नींद न आई मुझ को
इन्ही आँखों ने दिखाए कई भरपूर जमाल
इन्हीं आँखों ने शब-ए-हिज्र दिखाई मुझ को
साए की तरह मिरे साथ रहे रंज ओ अलम
गर्दिश-ए-वक़्त कहीं रास न आई मुझ को
धूप इधर ढलती थी दिल डूबता जाता था इधर
आज तक याद है वो शाम-ए-जुदाई मुझ को
शहर-ए-लाहौर तिरी रौनक़ें दाइम आबाद
तेरी गलियों की हवा खींच के लाई मुझ को
ग़ज़ल
अव्वलीं चाँद ने क्या बात सुझाई मुझ को
नासिर काज़मी