अव्वलन उस बे-निशाँ और बा-निशाँ को इश्क़ है
ब'अद-अज़ाँ सर हल्क़ा-ए-पैग़मबराँ को इश्क़ है
ला-फ़ता-इल्ला-अली है शान में जिस की नुज़ूल
दोस्ताँ उस शाह-ए-मर्दां से जवाँ को इश्क़ है
फिर जो है बाग़-ए-नबुव्वत और इमामत की बहार
ग़ुंचा-ए-गुल सब्ज़ा-ए-अम्बर-फ़िशाँ को इश्क़ है
अर्श ओ कुर्सी हूर ओ ग़िल्माँ और मलाएक ख़ास ओ आम
आलम-ए-बाला के सब बाशिंदगाँ को इश्क़ है
हैं जो ये चौदह तबक़ मुतहर्रिक ओ साकिन सदा
बे-सुख़न उन सब ज़मीन-ओ-आसमाँ को इश्क़ है
मुख़्तलिफ़ हैं और मिले रहते हैं बाहम रोज़-ओ-शब
ख़ाक बाद ओ आतिश ओ आब-ए-रवाँ को इश्क़ है
है जहाँ में जिन से रौशन अद्ल के घर का चराग़
दम-ब-दम उन बादशाहान-ए-जहाँ को इश्क़ है
और ख़ुरासाँ असफ़हान ईरान और तूरान को
फिर हमारे गुलशन-ए-हिन्दोस्ताँ को इश्क़ है
हैं जहाँ तक सिलसिले फ़ुक़रा के अज़-कह-ता-बह-मह
आरिफ़ाँ और कामिलाँ और आशिक़ाँ को इश्क़ है
कोह थर्राते हैं लर्ज़ें हैं ज़मीन ओ आसमान
आशिक़-ए-मौला की फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ को इश्क़ है
हर तरफ़ गुलज़ार है सब्ज़ान और आब-ए-रवाँ
अपनी नज़रों में बहार-ए-गुल-फ़शाँ को इश्क़ है
वो जो हैं इस गुलशन-ए-हस्ती में अब महव-ए-फ़ना
उन के आगे मौसम-ए-बाद-ए-ख़िज़ाँ को इश्क़ है
गर्द के मानिंद फिरती हैं पड़ी उड़ती ख़राब
लुट गई दस्त-ए-जुनूँ की कारवाँ को इश्क़ है
लोटते हैं मस्त मय-ख़ाने के दर पर जा-ब-जा
जाम ओ सहबा साक़ी ओ पीर-ए-मुग़ाँ को इश्क़ है
कल ही नक़्श-ए-ज़ाइक़ा सुन कर भी हम आमिल रहे
ऐ अज़ीज़ाँ इस हयात-ए-राएगाँ को इश्क़ है
ख़िल्क़त-ए-कौनैन में क्या जिन ओ क्या इंसाँ 'नज़ीर'
वहशी ओ ताइर ज़बाँ ओ बे-ज़बाँ को इश्क़ है
ग़ज़ल
अव्वलन उस बे-निशाँ और बा-निशाँ को इश्क़ है
नज़ीर अकबराबादी