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और न दर-ब-दर फिरा और न आज़मा मुझे | शाही शायरी
aur na dar-ba-dar phira aur na aazma mujhe

ग़ज़ल

और न दर-ब-दर फिरा और न आज़मा मुझे

अनवर शऊर

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और न दर-ब-दर फिरा और न आज़मा मुझे
बस मिरे पर्दा-दार बस! अब नहीं हौसला मुझे

सख़्त नज़र-फ़रेब है आइना-ख़ाना-ए-जमाल
उस की चमक-दमक न देख, देख बुझा बुझा मुझे

हब्स-ए-हुजूम-ए-ख़ल्क़ से घुट के अलग हुआ तो मैं
क़तरा ब-सतह-ए-बहर था चाट गई हवा मुझे

सब्र करो मुहासिबो वक़्त तुम्हें बताएगा
दहर को मैं ने क्या दिया दहर से क्या मिला मुझे

सिर्फ़ उसी के सामने ख़्वार किया था आस ने
यास ने फ़र्द फ़र्द पर आइना कर दिया मुझे

तेरे ही मिस्र का मलाल तेरे ही नज्द का ख़याल
शहर-ब-शहर कू-ब-कू गाम-ब-गाम था मुझे

कार-गह-ए-बक़ा मुझे ज़ात-ओ-हयात-ओ-काएनात
ज़ात-ओ-हयात-ओ-काएनात दायरा-ए-फ़ना मुझे

ज़ात-ओ-हयात-ओ-काएनात बे-सर-ओ-पा ओ बे-सबात
बे-सर-ओ-पा ओ बे-सबात शय से उमीद क्या मुझे

रात लुग़ात-ए-उम्र से मैं ने चुना था एक लफ़्ज़
लफ़्ज़ बहुत अजीब था याद नहीं रहा मुझे

था गुज़राँ गुज़र गया वक़्त-ए-विसाल और बस
ख़ाक भी छानता फिरा फिर न कभी मिला मुझे

मैं ने हँसी-ख़ुशी उसे जाने दिया था हाँ मगर
ये तो मुआहिदा न था मुड़ के न देखना मुझे

शाम उस आदमी की याद आई जो एक उम्र बा'द
जानिए किस अज़ाब में कर गई मुब्तला मुझे

मैं ने उसे शिकस्त दी सीना-ब-सीना लब-ब-लब
सीना-ब-सीना लब-ब-लब उस ने हरा दिया मुझे

जो न सुना था दहर से उस की ज़बाँ से सुन लिया
अब मुझे कोई कुछ कहे फ़िक्र नहीं ज़रा मुझे

हैं तिरी मेहरबानियाँ भूली हुई कहानियाँ
भूली हुई कहानियाँ याद न अब दिला मुझे

फ़न को समझ लिया गया महज़ अतिय्या-ए-फ़लक
सई-ओ-रियाज़ का सिला ख़ूब दिया गया मुझे

महरम-ए-ख़ास देखना सो तो नहीं गया 'शुऊर'
देर हुई सुने हुए कोई नई सदा मुझे