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और कुछ तेज़ चलीं अब के हवाएँ शायद | शाही शायरी
aur kuchh tez chalin ab ke hawaen shayad

ग़ज़ल

और कुछ तेज़ चलीं अब के हवाएँ शायद

रईस सिद्दीक़ी

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और कुछ तेज़ चलीं अब के हवाएँ शायद
घर बनाने की मिलीं हम को सज़ाएँ शायद

भर गए ज़ख़्म मसीहाई के मरहम के बग़ैर
माँ ने की हैं मिरे जीने की दुआएँ शायद

मैं ने कल ख़्वाब में ख़ुद अपना लहू देखा है
टल गईं सर से मिरे सारी बलाएँ शायद

मैं ने कल जिन को अंधेरों से दिलाई थी नजात
अब वही लोग मिरे दिल को जलाएँ शायद

फिर वही सर है वही संग-ए-मलामत उस का
दर-गुज़र कर दीं मिरी उस ने ख़ताएँ शायद

अब वो कहता नहीं मुझ से कि बरहना तू है
छिन गईं उस के बदन की भी क़बाएँ शायद

इस भरोसे पे खिला है मिरा दरवाज़ा 'रईस'
रूठने वाले कभी लौट के आएँ शायद