और कोई चारा न था और कोई सूरत न थी
उस के रहे हो के हम जिस से मोहब्बत न थी
इतने बड़े शहर में कोई हमारा न था
अपने सिवा आश्ना एक भी सूरत न थी
इस भरी दुनिया से वो चल दिया चुपके से यूँ
जैसे किसी को भी अब उस की ज़रूरत न थी
अब तो किसी बात पर कुछ नहीं होता हमें
आज से पहले कभी ऐसी तो हालत न थी
सब से छुपाते रहे दिल में दबाते रहे
तुम से कहें किस लिए ग़म था वो दौलत न थी
अपना तो जो कुछ भी था घर में पड़ा था सभी
थोड़ा बहुत छोड़ना चोर की आदत न थी
ऐसी कहानी का मैं आख़िरी किरदार था
जिस में कोई रस न था कोई भी औरत न थी
शेर तो कहते थे हम सच है ये 'अल्वी' मगर
तुम को सुनाते कभी इतनी भी फ़ुर्सत न थी
ग़ज़ल
और कोई चारा न था और कोई सूरत न थी
मोहम्मद अल्वी