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और कोई चारा न था और कोई सूरत न थी | शाही शायरी
aur koi chaara na tha aur koi surat na thi

ग़ज़ल

और कोई चारा न था और कोई सूरत न थी

मोहम्मद अल्वी

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और कोई चारा न था और कोई सूरत न थी
उस के रहे हो के हम जिस से मोहब्बत न थी

इतने बड़े शहर में कोई हमारा न था
अपने सिवा आश्ना एक भी सूरत न थी

इस भरी दुनिया से वो चल दिया चुपके से यूँ
जैसे किसी को भी अब उस की ज़रूरत न थी

अब तो किसी बात पर कुछ नहीं होता हमें
आज से पहले कभी ऐसी तो हालत न थी

सब से छुपाते रहे दिल में दबाते रहे
तुम से कहें किस लिए ग़म था वो दौलत न थी

अपना तो जो कुछ भी था घर में पड़ा था सभी
थोड़ा बहुत छोड़ना चोर की आदत न थी

ऐसी कहानी का मैं आख़िरी किरदार था
जिस में कोई रस न था कोई भी औरत न थी

शेर तो कहते थे हम सच है ये 'अल्वी' मगर
तुम को सुनाते कभी इतनी भी फ़ुर्सत न थी