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और इशरत की तमन्ना क्या करें | शाही शायरी
aur ishrat ki tamanna kya karen

ग़ज़ल

और इशरत की तमन्ना क्या करें

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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और इशरत की तमन्ना क्या करें
सामने तू हो तुझे देखा करें

महव हो जाएँ तसव्वुर में तिरे
हम भी अपने क़तरे को दरिया करें

हम को है हर रोज़ हर वक़्त इंतिज़ार
बंदा-परवर गाह गाह आया करें

चारागर का चाहिए करना इलाज
उस को भी अपना सा दीवाना करें

उन के आने का भरोसा हो न हो
राह हम उन की मगर देखा करें

हम नहीं ना-वाक़िफ़ रस्म-ए-अदब
दिल की बेताबी को 'वहशत' क्या करें