EN اردو
अतवार तिरे अहल-ए-ज़मीं से नहीं मिलते | शाही शायरी
atwar tere ahl-e-zamin se nahin milte

ग़ज़ल

अतवार तिरे अहल-ए-ज़मीं से नहीं मिलते

मिर्ज़ा हादी रुस्वा

;

अतवार तिरे अहल-ए-ज़मीं से नहीं मिलते
अंदाज़ किसी और हसीं से नहीं मिलते

उन की भी ब-हर-हाल गुज़र जाती हैं रातें
जो लोग किसी ज़ोहरा-जबीं से नहीं मिलते

तुम मेहर सही माह सही हम से मिलो तो
क्या अहल-ए-महक अहल-ए-ज़मीं से नहीं मिलते

ऐ हज़रत-ए-दिल उन से बनी है न बनेगी
क्यूँ आप किसी और हसीं से नहीं मिलते

'मिर्ज़ा' को भी पर्दा नहीं वाला-मनशों की
अच्छा है जो उस ख़ाक-नशीं से नहीं मिलते