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अस्ल में हूँ मैं मुजरिम मैं ने क्यूँ शिकायत की | शाही शायरी
asl mein hun main mujrim maine kyun shikayat ki

ग़ज़ल

अस्ल में हूँ मैं मुजरिम मैं ने क्यूँ शिकायत की

शहज़ाद अहमद

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अस्ल में हूँ मैं मुजरिम मैं ने क्यूँ शिकायत की
ख़ुद पे बस नहीं इस का उम्र है शरारत की

प्यार का वही अंदाज़ उम्र का वही आग़ाज़
गरचे हैं मुलाक़ातें उस से एक मुद्दत की

दिल-नवाज़ ख़त उस के ज़ाइक़े बहुत उस के
रंग फीका फीका है शोख़ है तबीअत की

अब हरीफ़ सब उस के तल्ख़ रोज़ ओ शब उस के
काँपते हैं लब उस के उस ने क्यूँ मोहब्बत की

आग सा बदन उस का आफ़्ताब सी नज़रें
कौन ताब लाएगा इस क़दर तमाज़त की

अपने बंद कमरे में मैं पिघलता जाता हूँ
रात को निकल आई धूप किस क़यामत की

याद जब भी करता हूँ होंट जलने लगते हैं
दौड़ते लहू में हैं गर्मियाँ रिफ़ाक़त की

मजलिसों में यारों के मर्तबे बहुत से हैं
एक सी है तन्हाई इल्म और जहालत की

मैं हवा का झोंका सा अपने-आप में गुम था
ये ख़ला सी तन्हाई आप ने इनायत की

अहल-ए-ज़र नहीं हम लोग गहरी नींद सोते हैं
दिन हज़ार लम्हों का रात एक साअत की

पूछता नहीं कोई तजरबे को अब 'शहज़ाद'
यानी मुब्तदी होना शर्त है इमामत की