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असीर-ए-जिस्म हूँ दरवाज़ा तोड़ डाले कोई | शाही शायरी
asir-e-jism hun darwaza toD Dale koi

ग़ज़ल

असीर-ए-जिस्म हूँ दरवाज़ा तोड़ डाले कोई

आफ़ताब शम्सी

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असीर-ए-जिस्म हूँ दरवाज़ा तोड़ डाले कोई
गिरा पड़ा हूँ कुएँ में मुझे निकाले कोई

मैं अपने आप में उतरा खड़ा हूँ सदियों से
क़रीब आ के मिरे मेरी थाह पा ले कोई

मैं जंगलों में दरिंदों के साथ रहता रहा
ये ख़ौफ़ है कि अब इंसाँ न आ के खा ले कोई

शिकस्ता कश्ती के तख़्ते पे सो रहा हूँ मैं
थपेड़ा मौजों का आ कर मुझे जगा ले कोई

दहान-ए-ज़ख़्म तलक खिंच के आ चुका है अब
मैं मुंतज़िर हूँ ये ज़हराब चूस डाले कोई

ज़मीन प्यासी है तन में लहू नहीं बाक़ी
हमारा बोझ बहुत कम है अब उठा ले कोई

यक़ीं नहीं है किसी को मिरे बिखरने का
कसीफ़ ज़ेहनों के कर जाए साफ़ जाले कोई