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असीर-ए-दश्त-ए-तिलिस्मात आब से निकले | शाही शायरी
asir-e-dasht-e-tilismat aab se nikle

ग़ज़ल

असीर-ए-दश्त-ए-तिलिस्मात आब से निकले

जावेद शाहीन

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असीर-ए-दश्त-ए-तिलिस्मात आब से निकले
बहुत दिनों में सफ़ीने सराब से निकले

तपिश है ऐसी शबों में कि उड़ गई नींदें
सभी चमकते हुए रंग ख़्वाब से निकले

हिसार-ए-जब्र से मुमकिन नजात थी लेकिन
झुका के सर न किसी तंग बाब से निकले

कभी तो दर्द का शोला ज़बान पर भड़के
दहकता ख़ून रगों के अज़ाब से निकले

भरे घरों से बिछड़ने का ग़म नहीं 'शाहीन'
यही बहुत है कि शहर-ए-ख़राब से निकले