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अश्क चश्म-ए-बुत-ए-बे-जाँ से निकल सकता है | शाही शायरी
ashk chashm-e-but-e-be-jaan se nikal sakta hai

ग़ज़ल

अश्क चश्म-ए-बुत-ए-बे-जाँ से निकल सकता है

नाज़िम बरेलवी

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अश्क चश्म-ए-बुत-ए-बे-जाँ से निकल सकता है
आह-ए-पुर-सोज़ से पत्थर भी पिघल सकता है

अपने अंदाज़-ए-तकल्लुम को बदल दे वर्ना
मेरा लहजा भी तिरे साथ बदल सकता है

लोग कहते थे कि फलता नहीं नफ़रत का शजर
हम को लगता है कि इस दौर में फल सकता है

मेरे सीने में मोहब्बत की तपिश बाक़ी है
मेरी साँसों से तिरा हुस्न पिघल सकता है

चाँद की चाह में उड़ते हुए पंछी की तरह
दिल भी नादाँ है किसी शय पे मचल सकता है

जज़्बा-ए-इश्क़ से रौशन है मिरा दिल 'नाज़िम'
ये दिया तेज़ हवाओं में भी जल सकता है