EN اردو
अरबाब-ए-गुलिस्ताँ का चलन देख रहा हूँ | शाही शायरी
arbab-e-gulistan ka chalan dekh raha hun

ग़ज़ल

अरबाब-ए-गुलिस्ताँ का चलन देख रहा हूँ

महेश चंद्र नक़्श

;

अरबाब-ए-गुलिस्ताँ का चलन देख रहा हूँ
कलियों की जबीनों पे शिकन देख रहा हूँ

नज़रों में सिमटती चली आती हैं बहारें
इक शोख़ की रानाई-ए-तन देख रहा हूँ

हर फूल तिरे हुस्न का आईना बना है
जल्वे तिरे ऐ जान-ए-चमन देख रहा हूँ

हालात की गर्दिश भी नज़र में है मगर आह!
मजबूर निगाहों में थकन देख रहा हूँ

फिर शौक़-ए-शहादत में बढ़े आते हैं जाँ-बाज़
इक हश्र सर-ए-दार-ओ-रसन देख रहा हूँ

ये वादी-ए-गुल-पोश हसीनों के ये झुरमुट
हर सम्त सितारों के चमन देख रहा हूँ

ऐ 'नक़्श' नज़र में हैं नए दौर के अंदाज़
मिटते हुए आसार-ए-कुहन देख रहा हूँ