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अक़्लीम-ए-दिल पे इश्क़ की फ़रमाँ-रवाइयाँ | शाही शायरी
aqlim-e-dil pe ishq ki farman-rawaiyan

ग़ज़ल

अक़्लीम-ए-दिल पे इश्क़ की फ़रमाँ-रवाइयाँ

शाद बिलगवी

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अक़्लीम-ए-दिल पे इश्क़ की फ़रमाँ-रवाइयाँ
जाँ-बख़्श क़ुर्बतें कहीं क़ातिल जुदाइयाँ

सूली चढ़ा कोई कोई ग़र्क़ाब हो गया
क्या क्या वफ़ा से होती रहीं बेवफ़ाइयाँ

लुटती है क़ैद-ए-ज़ुल्फ़ में क्या क्या बहार-ए-हुस्न
तह में असीरियों की हैं क्या क्या रिहाइयाँ

ज़ात-ए-बशर हज़ार गिरोहों में बट गई
गुमराह और कर गईं कुछ रह-नुमाइयाँ

नादारियों में सब्र की ने'मत से थे ग़नी
दौलत बढ़ी तो बढ़ गईं बे-इ'तिनाइयाँ

बे-पर्दगी से उड़ गया शर्म-ओ-हया का रंग
चेहरे पे उड़ रही हैं हया के हवाइयाँ

औसाफ़ देखना हों तो औरों के देख 'शाद'
ओझल हैं तेरी आँख से तेरी बुराइयाँ