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अपनों से मुरव्वत का तक़ाज़ा नहीं करते | शाही शायरी
apnon se murawwat ka taqaza nahin karte

ग़ज़ल

अपनों से मुरव्वत का तक़ाज़ा नहीं करते

शोहरत बुख़ारी

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अपनों से मुरव्वत का तक़ाज़ा नहीं करते
सहराओं में साए की तमन्ना नहीं करते

मजनूँ पे न कर रश्क कि जो अहल-ए-वफ़ा हैं
मर जाते हैं माशूक़ को रुस्वा नहीं करते

टुक देख लिया आँखों ही आँखों में हँसे भी
पर यूँ तो इलाज-ए-दिल-ए-शैदा नहीं करते

क्या हो गया इस शहर के लोगों के दिलों को
ख़ंजर भी उतर जाए तो धड़का नहीं करते

बारिश की तलब है तो समुंदर की तरफ़ जा
ये अब्र तो सहराओं पे बरसा नहीं करते

दो दिन की जो बाक़ी है तहम्मुल से बसर कर
जो होना है हो जाएगा सोचा नहीं करते

पछतावे से बढ़ कर कोई आज़ार नहीं है
जब दिल को लगाते हैं तो रोया नहीं करते

मायूसी की नेमत बड़ी मुश्किल से मिली है
फिर आस बँधाते हो तुम अच्छा नहीं करते

जो कुछ कहे 'शोहरत' की ग़ज़ल मान लो उस को
दिल को कभी शायर के दुखाया नहीं करते