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अपने वा'दों को फ़रामोश न कर देना था | शाही शायरी
apne wadon ko faramosh na kar dena tha

ग़ज़ल

अपने वा'दों को फ़रामोश न कर देना था

बिस्मिल सईदी

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अपने वा'दों को फ़रामोश न कर देना था
साज़-ए-अल्ताफ़ को ख़ामोश न कर देना था

अपनी नज़रों से अगर मुझ को किया था ओझल
अपने दिल से तो फ़रामोश न कर देना था

नहीं आता था अगर होश में लाना तुम को
किसी कम्बख़्त को बेहोश न कर देना था

हर-नफ़स मौत के क़दमों की सदा सुनने को
ज़िंदगी को हमा-तन-गोश न कर देना था

आँसुओं में फ़क़त अब मुझ को नज़र आते हो
इस तरह तो मुझे ग़म-कोश न कर देना था

न उठाना था दर-ए-मय-कदा-ए-नाज़ से अब
वर्ना पहले मुझे मय-नोश न कर देना था

हश्र भी या तो बहिश्त-आफ़रीं करना था मिरा
या मिरी क़ब्र को गुल-पोश न कर देना था

इस तरह ज़हमत-ए-फ़र्दा को बढ़ाने के लिए
मुझ को ख़मयाज़ा-कश-ए-दोश न कर देना था

आँख में देख कर आँसू मुझे रश्क आता है
इतना वीरान तो आग़ोश न कर देना था

दफ़्तर-ए-नाज़ पे कुछ बार न था इस का नियाज़
अपने 'बिस्मिल' को सुबुक-दोश न कर देना था