अपने पिंदार से घट कर नहीं क़ाएम रहता
फ़र्द किरदार से हट कर नहीं क़ाएम रहता
अक्स बट जाता है आईनों में लेकिन ऐ दिल
आइना अक्स में बट कर नहीं क़ाएम रहता
कोई भी नक़्श हो कितना ही मुकम्मल लेकिन
वक़्त की गर्द में अट कर नहीं क़ाएम रहता
आसमानों में उड़ानों का मज़ा होगा मगर
कोई भी ख़ाक से कट कर नहीं क़ाएम रहता
रोज़ इक राह नई शौक़-ए-सफ़र माँगता है
दाएरों में ही सिमट कर नहीं क़ाएम रहता
क़िता-ए-जाँ को जलाता हुआ इस धूप का रंग
छाँव से तेरी लिपट कर नहीं क़ाएम रहता
याद में उन की कई बार बिखर जाता है
दिल भी क्या है कि सिमट कर नहीं क़ाएम रहता
दिल वो बच्चा कि इसी पल में हुमकना चाहे
ये वो लम्हा कि पलट कर नहीं क़ाएम रहता

ग़ज़ल
अपने पिंदार से घट कर नहीं क़ाएम रहता
नरजिस अफ़रोज़ ज़ैदी