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अपने एहसास से बाहर नहीं होने देता | शाही शायरी
apne ehsas se bahar nahin hone deta

ग़ज़ल

अपने एहसास से बाहर नहीं होने देता

जाफ़र शिराज़ी

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अपने एहसास से बाहर नहीं होने देता
राज़ ज़ाहिर भी ये मुझ पर नहीं होने देता

ख़ौफ़-ए-रुस्वाई से कर देता है हैराँ ऐसा
मेरी आँखों को समुंदर नहीं होने देता

मोम कर देता है जब लौट के आ जाता है
मुझ को फ़ुर्क़त में वो पत्थर नहीं होने देता

देखता हूँ तो कभी चाँद कभी फूल है वो
अपनी सूरत मुझे अज़बर नहीं होने देता

जी में है उड़ के चला जाऊँ जहाँ रहता है
वो मिरा घर भी मिरा घर नहीं होने देता

जब भी मिलता है तो बस टूट के मिलता है मुझे
अपने ग़म का मुझे ख़ूगर नहीं होने देता

रूठ भी जाते हैं 'जअफ़र' तो मना लेने में
मुझ को अपने से वो बेहतर नहीं होने देता