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अपने अशआर को रुस्वा सर-ए-बाज़ार करूँ | शाही शायरी
apne ashaar ko ruswa sar-e-bazar karun

ग़ज़ल

अपने अशआर को रुस्वा सर-ए-बाज़ार करूँ

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

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अपने अशआर को रुस्वा सर-ए-बाज़ार करूँ
कैसे मुमकिन है कि मैं मिदहत-ए-दरबार करूँ

दिल में मक़्तूल की तस्वीर लिए फिरता हूँ
और क़ातिल से अक़ीदत का भी इज़हार करूँ

यही मंशूर-ए-मोहब्बत है कि वो पैकर-ए-ज़ुल्म
जिस को नफ़रत से नवाज़े मैं उसे प्यार करूँ

अब मिरे शहर की पहचान है इक वादा-शिकन
शहरियत बदलूँ कि तारीख़ का इंकार करूँ

रात भर जाग के तामीर करूँ क़सर-ए-उमीद
सुब्ह-ए-तकमील से पहले उसे मिस्मार करूँ