अनोखा कुछ कहाँ ऐसा हुआ है
तमाशा सब मिरा देखा हुआ है
ख़ुशी को हम-नशीं अपना बना कर
निशान-ए-ग़म बहुत गहरा हुआ है
हँसी क्यूँ बे-तहाशा आई उस को
ज़माना किस लिए सनका हुआ है
नई शादाब क़ुर्बत की फ़ज़ा में
बहुत मख़मूर सा लहजा हुआ है
सरापा देख कर दिलकश किसी का
हर इक मंज़र वहाँ ठहरा हुआ है
कभी मंसूब राहत से था दरिया
बड़ा बे-दर्द वो सहरा हुआ है
तपिश में इश्क़ की बेचैन सा था
कलेजा रो के अब ठंडा हुआ है
सजा कर बज़्म 'जाफ़र' आरज़ू की
अकेला देर से बैठा हुआ है

ग़ज़ल
अनोखा कुछ कहाँ ऐसा हुआ है
जाफ़र साहनी