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अंजुमन में जो मिरी इतनी ज़िया है साहब | शाही शायरी
anjuman mein jo meri itni ziya hai sahab

ग़ज़ल

अंजुमन में जो मिरी इतनी ज़िया है साहब

आलोक यादव

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अंजुमन में जो मिरी इतनी ज़िया है साहब
ख़ून-ए-दिल मेरे चराग़ों की ग़िज़ा है साहब

बुत-शिकन निकला वही समझा था जिस को बुत-गर
जिस में रहता था वही तोड़ गया है साहब

आँख से आँसू चुरा ले गया लेकिन वो शख़्स
बे-गुहर सीप यहीं छोड़ गया है साहब

मुझ को जन्नत के नज़ारे भी नहीं जचते हैं
शहर-ए-जानाँ ही तसव्वुर में बसा है साहब

रेगज़ारों के सफ़र पे जो चले हो 'आलोक',
कोई आँखों में लिए अश्क खड़ा है साहब