अंजाम-ए-वफ़ा भी देख लिया अब किस लिए सर ख़म होता है
नाज़ुक है मिज़ाज-ए-हुस्न बहुत सज्दे से भी बरहम होता है
मिल-जुल के ब-रंग-ए-शीर-ओ-शकर दोनों के निखरते हैं जौहर
दरियाओं के संगम से बढ़ कर तहज़ीब का संगम होता है
कुछ मा-ओ-शुमा में फ़र्क़ नहीं कुछ शाह-ओ-गदा में भेद नहीं
हम बादा-कशों की महफ़िल में हर जाम ब-कफ़ जम होता है
दीवानों के जुब्बा-ओ-दामन का उड़ता है फ़ज़ा में जो टुकड़ा
मुस्तक़बिल-ए-मिल्लत के हक़ में इक़बाल का परचम होता है
मंसूर जो होता अहल-ए-नज़र तो दा'वा-ए-बातिल क्यूँ करता
उस की तो ज़बाँ खुलती ही नहीं जो राज़ का महरम होता है
ता-चंद 'सुहैल' अफ़्सुर्दा-ए-ग़म क्या याद नहीं तारीख़-ए-हरम
ईमाँ के जहाँ पड़ते हैं क़दम पैदा वहीं ज़मज़म होता है
ग़ज़ल
अंजाम-ए-वफ़ा भी देख लिया अब किस लिए सर ख़म होता है
इक़बाल सुहैल