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अँधेरों से उलझने की कोई तदबीर करना है | शाही शायरी
andheron se ulajhne ki koi tadbir karna hai

ग़ज़ल

अँधेरों से उलझने की कोई तदबीर करना है

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

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अँधेरों से उलझने की कोई तदबीर करना है
कोई रौज़न किसी दीवार में तस्ख़ीर करना है

ज़रा देखूँ तो दम कितना है इस बाद-ए-मुख़ालिफ़ में
सर-ए-दश्त-ए-बला इक घर नया ता'मीर करना है

निकल आया है जो बेदाद राहों पर दिल-ए-बे-ख़ुद
कोई नावक-फ़गन आए उसे नख़चीर करना है

सर-ए-दश्त-ए-जुनूँ जो बे-ख़ुदी के फूल खिलते हैं
उन्हें रौशन दिमाग़ों के लिए इक्सीर करना है

मकान-ए-ला-मकानी का सफ़र मेरा नहीं रुकता
तुम्हारी याद को अब पाँव की ज़ंजीर करना है