अमल बर-वक़्त होना चाहिए था
ज़मीं नम थी तो बोना चाहिए था
समझना था मुझे बारिश का पानी
तुम्हें कपड़े भिगोना चाहिए था
तू जादू है तो कोई शक नहीं है
मैं पागल हूँ तो होना चाहिए था
मैं मुजरिम हूँ तो मुजरिम इसलिए हूँ
मुझे सालिम खिलौना चाहिए था
अगर कट-फट गया था मेरा दामन
तुम्हें सीना पिरोना चाहिए था
ग़ज़ल
अमल बर-वक़्त होना चाहिए था
अहमद कमाल परवाज़ी