अक्स हर रोज़ किसी ग़म का पड़ा करता है
दिल वो आईना कि चुप-चाप तका करता है
बहते पानी की तरह दर्द की भी शक्ल नहीं
जब भी मिलता है नया रूप हुआ करता है
मैं तो बहरूप हूँ उस का जो है मेरे अंदर
वो कोई और है जो मुझ में जिया करता है
रंग सा रोज़ बिखर जाता है दीवारों पर
कुछ दिए जैसा दरीचे में जला करता है
जाने वो कौन है जो रात के सन्नाटे में
कभी रोता है कभी ख़ुद पे हिंसा करता है
रोज़ राहों से गुज़रता है सदाओं का जुलूस
दिल का सन्नाटा मगर रोज़ बढ़ा करता है
ग़ज़ल
अक्स हर रोज़ किसी ग़म का पड़ा करता है
बशर नवाज़