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अक्स आईना-ख़ाना से अलग रक्खा है | शाही शायरी
aks aaina-KHana se alag rakkha hai

ग़ज़ल

अक्स आईना-ख़ाना से अलग रक्खा है

शाहिद कमाल

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अक्स आईना-ख़ाना से अलग रक्खा है
वहशत-ए-ज़ात को सहरा से अलग रक्खा है

ख़ुद को मैं ख़ुद से भी मिलने नहीं देता हरगिज़
अपनी दुनिया को भी दुनिया से अलग रक्खा है

मैं कहाँ साअत-ए-इमरोज़ में रहने वाला
मैं ने हर रोज़ को फ़र्दा से अलग रक्खा है

दो महाज़ों पे अभी मा'रका-आराई है
ख़ेमा-ए-सब्र को दजला से अलग रक्खा है

ख़ुश्क मश्कीज़ा-ए-हुल्क़ूम की निगरानी में
प्यास के ख़ित्ते को दरिया से अलग रक्खा है

वो तो कहता है तिरी ज़ात में ज़म हूँ लेकिन
उस ने भी ख़ुद को बस इक ला से अलग रक्खा है

कितना आसान है ये जादा-ए-दुश्वार भी अब
अपना हर नक़्श कफ़-ए-पा से अलग रक्खा है

मैं 'यगाना' का तरफ़-दार नहीं हूँ 'शाहिद'
इस लिए मीर को मिर्ज़ा से अलग रक्खा है