अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था
गुलाब जैसे कड़ी धूप के अलाव में था
है जिस की याद मिरी फ़र्द-ए-जुर्म की सुर्ख़ी
उसी का अक्स मिरे एक एक घाव में था
यहाँ वहाँ से किनारे मुझे बुलाते रहे
मगर मैं वक़्त का दरिया था और बहाव में था
उरूस-ए-गुल को सबा जैसे गुदगुदा के चली
कुछ ऐसा प्यार का आलम तिरे सुभाव में था
मैं पुर-सुकूँ हूँ मगर मेरा दिल ही जानता है
जो इंतिशार मोहब्बत के रख-रखाव में था
ग़ज़ल के रूप में तहज़ीब गा रही थी 'नदीम'
मिरा कमाल मिरे फ़न के इस रचाव में था
ग़ज़ल
अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था
अहमद नदीम क़ासमी