EN اردو
अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था | शाही शायरी
ajib rang tere husn ka lagaw mein tha

ग़ज़ल

अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था

अहमद नदीम क़ासमी

;

अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था
गुलाब जैसे कड़ी धूप के अलाव में था

है जिस की याद मिरी फ़र्द-ए-जुर्म की सुर्ख़ी
उसी का अक्स मिरे एक एक घाव में था

यहाँ वहाँ से किनारे मुझे बुलाते रहे
मगर मैं वक़्त का दरिया था और बहाव में था

उरूस-ए-गुल को सबा जैसे गुदगुदा के चली
कुछ ऐसा प्यार का आलम तिरे सुभाव में था

मैं पुर-सुकूँ हूँ मगर मेरा दिल ही जानता है
जो इंतिशार मोहब्बत के रख-रखाव में था

ग़ज़ल के रूप में तहज़ीब गा रही थी 'नदीम'
मिरा कमाल मिरे फ़न के इस रचाव में था