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अजीब मंज़र है बारिशों का मकान पानी में बह रहा है | शाही शायरी
ajib manzar hai barishon ka makan pani mein bah raha hai

ग़ज़ल

अजीब मंज़र है बारिशों का मकान पानी में बह रहा है

शकील आज़मी

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अजीब मंज़र है बारिशों का मकान पानी में बह रहा है
फ़लक ज़मीं की हुदूद में है निशान पानी में बह रहा है

तमाम फ़सलें उजड़ चुकी हैं न हल बचा है न बैल बाक़ी
किसान गिरवी रखा हुआ है लगान पानी में बह रहा है

अज़ाब उतरा तो पाँव सब के ज़मीं की सतहों से आ लगे हैं
हवा के घर में नहीं है कोई मचान पानी में बह रहा है

कोई किसी को नहीं बचाता सब अपनी ख़ातिर ही तैरते हैं
ये दिन क़यामत का दिन हो जैसे जहान पानी में बह रहा है

उदास आँखों के बादलों ने दिलों के गर्द-ओ-ग़ुबार धोए
यक़ीन पत्थर बना खड़ा है गुमान पानी में बह रहा है