अजीब हालत है जिस्म-ओ-जाँ की हज़ार पहलू बदल रहा हूँ
वो मेरे अंदर उतर गया है मैं ख़ुद से बाहर निकल रहा हूँ
बहुत से लोगों में पाँव हो कर भी चलने-फिरने का दम नहीं है
मिरे ख़ुदा का करम है मुझ पर मैं अपने पैरों से चल रहा हूँ
मैं कितने अशआर लिख के काग़ज़ पे फाड़ देता हूँ बे-ख़ुदी में
मुझे पता है मैं अज़दहा बन के अपने बच्चे निगल रहा हूँ
वो तेज़ आँधी जो गर्द उड़ाती हुई गई है तभी से यारो
गली के नुक्कड़ पे बैठा बैठा मैं अपनी आँखें मसल रहा हूँ
अभी तो आग़ाज़ है सफ़र का अभी अँधेरे बहुत मिलेंगे
तुम अपनी शमएँ बचा के रक्खो चराग़ बन कर मैं जल रहा हूँ
ग़ज़ल
अजीब हालत है जिस्म-ओ-जाँ की हज़ार पहलू बदल रहा हूँ
अज़्म शाकरी