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अजब था ज़ोम कि बज़्म-ए-अज़ा सजाएँगे | शाही शायरी
ajab tha zoam ki bazm-e-aza sajaenge

ग़ज़ल

अजब था ज़ोम कि बज़्म-ए-अज़ा सजाएँगे

ग़ुफ़रान अमजद

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अजब था ज़ोम कि बज़्म-ए-अज़ा सजाएँगे
मिरे हरीफ़ लहू के दिए जलाएँगे

मैं तजरबों की अज़िय्यत किसे किसे समझाऊँ
कि तेरे बाद भी मुझ पर अज़ाब आएँगे

बस एक सज्दा-ए-ताज़ीम के तक़ाबुल में
कहाँ कहाँ वो जबीन-ए-तलब झुकाएँगे

अतश अतश की सदाएँ उठी समुंदर से
तो दश्त-ए-प्यास के चश्मे कहाँ लगाएँगे

छुपा के रख तो लिया है शरार-ए-बू-लहबी
धुआँ उठा तो नज़र तक मिला न पाएँगे

दराज़ करते रहो दस्त-ए-हक़-शनास अपना
बहुत हुआ तो वो नेज़े पे सर उठाएँगे

नवाह-ए-लफ़्ज़-ओ-मआनी में गूँज है किस की
कोई बताए ये 'अमजद' कि हम बताएँगे