अजब था ज़ोम कि बज़्म-ए-अज़ा सजाएँगे
मिरे हरीफ़ लहू के दिए जलाएँगे
मैं तजरबों की अज़िय्यत किसे किसे समझाऊँ
कि तेरे बाद भी मुझ पर अज़ाब आएँगे
बस एक सज्दा-ए-ताज़ीम के तक़ाबुल में
कहाँ कहाँ वो जबीन-ए-तलब झुकाएँगे
अतश अतश की सदाएँ उठी समुंदर से
तो दश्त-ए-प्यास के चश्मे कहाँ लगाएँगे
छुपा के रख तो लिया है शरार-ए-बू-लहबी
धुआँ उठा तो नज़र तक मिला न पाएँगे
दराज़ करते रहो दस्त-ए-हक़-शनास अपना
बहुत हुआ तो वो नेज़े पे सर उठाएँगे
नवाह-ए-लफ़्ज़-ओ-मआनी में गूँज है किस की
कोई बताए ये 'अमजद' कि हम बताएँगे
ग़ज़ल
अजब था ज़ोम कि बज़्म-ए-अज़ा सजाएँगे
ग़ुफ़रान अमजद