अजब नहीं कभी नग़्मा बने फ़ुग़ाँ मेरी
मिरी बहार में शामिल है अब ख़िज़ाँ मेरी
मैं अपने आप को औरों में रख के देखता हूँ
कहीं फ़रेब न हों दर्द-मंदियाँ मेरी
मैं अपनी क़ुव्वत-ए-इज़हार की तलाश में हूँ
वो शौक़ है कि सँभलती नहीं ज़बाँ मेरी
यही सबब है कि अहवाल-ए-दिल नहीं कहता
कहूँ तो और उलझती हैं गुत्थियाँ मेरी
मैं अपने इज्ज़ पे नादिम नहीं हूँ हम-सुख़नो
हज़ार शुक्र तबीअ'त नहीं रवाँ मेरी
ग़ज़ल
अजब नहीं कभी नग़्मा बने फ़ुग़ाँ मेरी
अहमद मुश्ताक़