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ऐसी तड़प अता हो के दुनिया मिसाल दे | शाही शायरी
aisi taDap ata ho ke duniya misal de

ग़ज़ल

ऐसी तड़प अता हो के दुनिया मिसाल दे

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

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ऐसी तड़प अता हो के दुनिया मिसाल दे
इक मौज-ए-तह-नशीं हूँ मुझे भी उछाल दे

बे-चेहरगी की भीड़ में गुम है मिरा वजूद
मैं ख़ुद को ढूँढता हूँ मुझे ख़द-ओ-ख़ाल दे

हर लहज़ा बनते टूटते रिश्ते न हों जहाँ
पिछली रफ़ाक़तों के वही माह ओ साल दे

कश्कोल-ए-ज़ात ले के न जाऊँ मैं दर-ब-दर
हाजत-रवा हो सब का वो दस्त-ए-सवाल दे

इस दश्त-ए-पुर-सराब में भटकूँ कहाँ कहाँ
ज़ंजीर-ए-आगही मिरे पैरों में डाल दे

'मंज़ूर' का ये ज़र्फ़ कि कुछ माँगता नहीं
मर्ज़ी तिरी जो चाहे उसे ज़ुल-जलाल दे